ब्राह्मण गोलबंदी के शोर के बीच यूपी की राजनीति में कुर्मी समीकरण क्यों बने चर्चा का केंद्र
उत्तर प्रदेश की राजनीति में इन दिनों ब्राह्मण गोलबंदी को लेकर बहस तेज है, लेकिन इसी बीच अचानक कुर्मी राजनीति पर भी गंभीर चर्चा शुरू हो गई है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यह बदलाव यूं ही नहीं हुआ, बल्कि इसके पीछे बदलते सामाजिक समीकरण और चुनावी गणित की बड़ी वजहें हैं।एक समय था जब उत्तर प्रदेश की राजनीति में ब्राह्मणों का वर्चस्व स्पष्ट रूप से दिखाई देता था। सत्ता और संगठन दोनों स्तरों पर उनकी मजबूत पकड़ रही है। हालांकि समय के साथ राजनीति का स्वरूप बदला और जातीय संतुलन भी नए सिरे से आकार लेने लगा। अब राजनीतिक दल केवल एक जाति पर निर्भर रहने के बजाय उन समुदायों पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं, जो सत्ता की कुंजी साबित हो सकते हैं।
कुर्मी समाज को इसी संदर्भ में देखा जा रहा है। प्रदेश की कई विधानसभा सीटों पर कुर्मी मतदाताओं की निर्णायक मौजूदगी है। यह समुदाय न केवल ग्रामीण इलाकों में मजबूत है, बल्कि शहरी क्षेत्रों में भी इसका प्रभाव बढ़ा है। ऐसे में राजनीतिक दलों को यह एहसास हो गया है कि कुर्मी वोट बैंक को नजरअंदाज करना भारी पड़ सकता है।
विशेषज्ञों का कहना है कि ब्राह्मण गोलबंदी की चर्चाओं के बीच कुर्मी राजनीति का उभार इस बात का संकेत है कि दल अब संतुलन की रणनीति अपना रहे हैं। सामाजिक न्याय, प्रतिनिधित्व और सत्ता में हिस्सेदारी जैसे मुद्दों को आगे रखकर कुर्मी समाज को साधने की कोशिशें तेज हो गई हैं।
राजनीतिक गतिविधियों में यह भी देखा जा रहा है कि कुर्मी नेताओं को आगे लाने, संगठन में जगह देने और नीतिगत फैसलों में उनकी भूमिका बढ़ाने पर जोर दिया जा रहा है। इसका उद्देश्य साफ है—उस वर्ग को भरोसे में लेना, जो चुनावी नतीजों को प्रभावित करने की क्षमता रखता है।
कुल मिलाकर, ब्राह्मण गोलबंदी पर मचे राजनीतिक शोर के बीच कुर्मी राजनीति की गर्माहट यह दर्शाती है कि उत्तर प्रदेश की राजनीति अब नए शक्ति केंद्रों की ओर बढ़ रही है, जहां जातीय संतुलन और सामाजिक समीकरण भविष्य की दिशा तय करेंगे।

